किसी व्यवसाय के वित्तीय लेनदेन का लेखा – जोखा रखने , उसका सारांश प्रस्तुत करने , रिपोर्टिंग तथा विश्लेषण करने की कला को ही अकाउंटिंग कहा जाता है । अकाउंटिंग का कार्यभार संभालने वाले व्यक्ति को अकाउंटेंट के रूप में जाना जाता है तथा अकाउंटेंट की भूमिका किसी रिकॉर्ड कीपर के समान ही होती है । हालांकि , अकाउंटिंग को अब प्रबंधन का एक ऐसा उपकरण माना जाता है जो संगठन के भविष्य के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी देता है ।
Accounting के प्रकार ( Types of Accounting in hindi )
Accounting इसको मुख्यतः तीन भागों में बाटा गया है ।
- Personal Accounting (व्यक्तिगत खाता)
- Real accounting (वास्तविक खाता)
- Nominal Accounting ( अवास्तविक या नाममात्र खाता )
Personal Accounting ( व्यक्तिगत खाता )
वे खाते जो किसी व्यक्ति विशेष या संस्था विशेष ( फर्म , कम्पनी ) आदि से सम्बन्धित होते हैं , व्यक्तिगत खाते कहलाते हैं ; जैसे — सुनील कुमार का खाता , जैन इण्टर कॉलिज का खाता , देहली क्लॉथ मिल्स का खाता ।
लेखा करने के नियम – व्यक्तिगत खाते के दो रूप हो सकते हैं — पाने वाला तथा देने वाला ।
पाने वाले व्यक्ति या संस्था का खाता — ऋणी (Dr)
देने वाले व्यक्ति या संस्था का खाता – धनी (Cr)
उदाहरणार्थ
राजू ने अमित को ₹ 1,000 दिये – इस व्यवहार से राजू के यहाँ दो खाते प्रभावित होते हैं — अमित का खाता एवं रोकड़ खाता । चूँकि अमित रोकड़ पाने वाला व्यक्ति है ; अतः अमित के खाते को ऋणी किया जाएगा ।
राजू ने आदित्य से माल खरीदा – इस सौदे से राजू के यहाँ दो खाते प्रभावित होते हैं- आदित्य का खाता एवं माल खाता । आदित्य माल बेचने वाला अर्थात् देने वाला है ; अतः आदित्य के खाते को धनी किया जाएगा ।
वास्तविक खाते ( Real Accounts )
जो खाते किसी वस्तु , माल या सम्पत्ति से सम्बन्धित हो , उन्हे वास्तविक खाते कहते हैं ।
जैसे— रोकड़ खाता , माल खाता , फर्नीचर खाता , मशीन खाता इत्यादि ।
लेखा करने के नियम – वास्तविक खातों के दो रूप हो सकते हैं— व्यापार में आने वाली वस्तु या सम्पत्ति अथवा व्यापार से जाने वाली वस्तु या सम्पत्ति
व्यापार में आने वाली वस्तु या सम्पत्ति — ऋणी (Dr)
व्यापार से जाने वाली वस्तु या सम्पत्ति – धनी (Cr)
उदाहरणार्थ
हेमन्त से माल खरीदा – इस लेन – देन में माल , व्यापार में आया है । अतः माल खाता ‘ ऋणी ‘ किया जाएगा ।
संजय को रोकड़ दी– इस लेन – देन में रोकड़ व्यापार से गया है । अत : रोकड़ खाता ‘ धनी ‘ किया जाएगा ।
अवास्तविक या नाममात्र के खाते ( Nominal Accounts )
वे खाते जो व्यापार के आय – व्यय , या लाभ – हानि सम्बन्धित होते हैं , अवास्तविक या नाममात्र के खाते कहलाते हैं ।
जैसे– किराया खाता , मजदूरी खाता , ब्याज खाता , छूट या बट्टा खाता इत्यादि ।
लेखा करने के नियम– इन खातों को दो वर्गों में बाँटा जाता है— खर्चे एवं हानियाँ अथवा आय एवं लाभ ।
खर्चे एवं हानियाँ — ऋणी आय एवं लाभ धनी
उदाहरणार्थ
किराया दिया– इस व्यवहार में ‘ किराया ‘ व्यापार का व्यय है । अत : ‘ किराया खाता ‘ ‘ ऋणी ‘ किया जाएगा ।
ब्याज मिला – इस व्यवहार में ‘ ब्याज ‘ व्यापार की आय है । अत : ‘ ब्याज खाता ‘ ‘ धनी ‘ किया जाएगा ।
पुस्तपालन या बहीखाते की शब्दावली ( Terminology of Book – keeping )
बहीखाते को समझने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों का सही अर्थ जानना आवश्यक है । जो शब्द निम्नलिखित हैं
व्यापार ( Trade ) – लाभ कमाने के उद्देश्य से वस्तुओं एवं सेवाओं के क्रय – विक्रय को व्यापार कहते हैं । व्यापार देशी या विदेशी , थोक या फुटकर हो सकता है । यह बात महत्त्वपूर्ण है कि व्यापार प्रारम्भ करने का उद्देश्य लाभार्जन होता है , किन्तु उसका परिणाम लाभ या हानि कुछ भी हो सकता है ।
व्यापार का स्वामी ( Proprietor ) – वह व्यक्ति , जो पूँजी लगाकर व्यापार प्रारम्भ करता है तथा उसकी देख – रेख करता है और लाभ प्राप्त करने का अधिकारी होता है तथा साथ ही हानि एवं अन्य व्यापारिक जोखिम उठाने को तैयार रहता है , ‘ व्यापार का स्वामी ‘ कहलाता है । व्यापार का स्वामी कोई एक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह हो सकता है ।
सौदा ( Transaction ) – वस्तुओं अथवा सेवाओं के विनिमय अर्थात् क्रय – विक्रय को सौदा या लेन – देन या व्यापारिक व्यवहार कहते हैं । जैसे — क ने ख को ₹ 5,000 का माल बेचा । यह एक सौदा है । इसी प्रकार धन का लेन – देन व सेवाओं का आदान – प्रदान सौदा कहलाता है ।
पूँजी ( Capital ) – व्यापार प्रारम्भ करने के लिए व्यापारी द्वारा व्यापार में लगाये गये धन , माल तथा सम्पत्ति पूँजी कहते हैं । उदाहरण के लिए , यदि किसी व्यापारी ने ₹ 50,000 नकद , ₹ 25,000 का माल तथा ₹ 10,000 के फर्नीचर में व्यापार प्रारम्भ किया तो उसकी कुल पूँजी ( 50,000 + 25,000 + 10,000 ) = ₹ 85,000 होगी ।
माल ( Goods ) — विक्रय के उद्देश्य से क्रय की गयी वस्तुएँ माल कहलाती हैं । अन्य शब्दों में , वे समस्त वस्तुएँ , जिनका व्यापारी व्यापार करता है , माल कहलाती हैं । उदाहरण के लिए , पुस्तक विक्रेता के लिए पुस्तक , वस्त्र व्यापारी के लिए विभिन्न प्रकार के कपड़े , अन्न व्यापारी के लिए गेहूँ , चावल आदि माल कहलाएगा । लेकिन यदि कोई कपड़ा व्यापारी बैठने के लिए कुर्सी अथवा हिसाब लिखने के लिए कॉपी खरीदता है तो यह कुर्सी अथवा कॉपी उसके लिए माल नहीं होगा , क्योंकि इनके क्रय का उद्देश्य इनको बेचकर लाभ अर्जित करना नहीं है ।
क्रय ( Purchase ) – व्यापार में वे सभी माल या वस्तुएँ , जो लाभ पर बेचने के लिए खरीदी जाती हैं , उन्हें क्रय कहते हैं । यदि खरीदे हुए माल का तुरन्त भुगतान कर दिया जाता है तो इसके नकद क्रय कहते हैं । यदि क्रय का भुगतान तुरन्त न करके कुछ समय बाद किया जाता है तो इसे उधार क्रय कहते हैं ।
विक्रय / ( Sales ) — लाभ प्राप्ति के उद्देश्य से माल को बेचने की क्रिया विक्रय कहलाती है । विक्रय ‘ नकद ‘ तथा ‘ उधार ‘ दोनों प्रकार का हो सकता है ।
क्रय वापसी ( Purchase Return ) – जब क्रय किया गया माल खराब किस्म का होने के कारण या आदेश के अनुसार न होने के कारण विक्रेता को वापस कर दिया जाता है तो ऐसे वापस किये गये माल को ‘ क्रय वापसी ‘ कहते हैं
विक्रय वापसी ( Sales Return ) — विक्रय किये गये माल का वह भाग , जो खराब किस्म का होने , आदेश अनुसार न होने अथवा अन्य किसी कारणवश वापस आ जाता है , ‘ विक्रय वापसी ‘ कहलाता है ।
लेखा या प्रविष्टि ( Entry ) – जब किसी व्यापारिक सौदे या लेन – देन को नियमानुसार पुस्तकों में लिखा जाता है . तो इस प्रक्रिया को लेखा या प्रविष्टि कहते हैं ।
छूट , कटौती अथवा बट्टा ( Discount ) – जब व्यापारी अपने ग्राहकों को बेचे गये माल के सम्बन्ध में मूल्य चुकाने पर कुछ रियायत देता है तो इस रियायत को छूट या कटौती कहते हैं । छूट दो प्रकार की होती है— ( i ) व्यापारिक छूट तथा ( ii ) नकद छूट
- व्यापारिक छूट ( Trade Discount ) – माल की बिक्री बढ़ाने के उद्देश्य से थोक विक्रेता या निर्माता मूल्य सूची में छपे हुए मूल्य में जब कुछ प्रतिशत कमी कर देता है तो उसे व्यापारिक छूट कहते हैं । व्यापारिक छूट का लेखा बहियों में नहीं किया जाता । छूट घटाने के बाद जो शुद्ध क्रय मूल्य या विक्रय मूल्य होता है , उसी से लेखा किया जाता है ।
- नकद छूट ( Cash Discount ) – उधार विक्रय किये हुए माल का भुगतान शीघ्र प्राप्त करने के उद्देश्य से जो छूट दी जाती है उसे नकद छूट कहते हैं । यह छूट भी साधारणतः प्रतिशत के रूप में दी जाती है । पुस्तकों में नकद छूट का लेखा किया जाता है ।
प्रमाणक ( Vouchers ) – लेन – देन के लिखित प्रमाण – पत्रों को प्रमाणक कहते हैं । इन्हीं प्रमाणकों के आधार पर पुस्तकों में लेखे किये जाते हैं । इन प्रमाण – पत्रों को भविष्य में सन्दर्भ के लिए सुरक्षित रखा जाता है । ये प्रमाणक किसी से रुपया या माल प्राप्त करने तथा किसी को रुपया या माल देने से सम्बन्धित होते हैं ।
रहतिया ( Stock ) — रहतिये को ‘ स्कन्ध ‘ भी कहते हैं । वर्ष के अन्त में जितना माल बिना बिका रह जाता है उसे अन्तिम रहतिया ( Closing Stock ) कहते हैं । यही बचा हुआ माल अगले वर्ष के प्रारम्भ में प्रारम्भिक रहतिया ( Opening Stock ) कहलाता है ।
देनदार या ऋणी ( Debtors ) – जिस व्यक्ति या संस्था पर व्यापारी का कोई धन बकाया रहता है , उसे व्यापार का द्वेनदार या ऋणी कहते हैं । दूसरे शब्दों में , वे व्यक्ति जो व्यापारी से उधार क्रय करते हैं या रुपया उधार लेते हैं , वे व्यापार के ‘ देनदार ‘ या ‘ ऋणी ‘ कहलाते हैं । ये व्यापार की सम्पत्ति होते हैं ।
अशोध्य या डूबत ऋण ( Bad Debts ) — जब देनदारों से प्राप्त होने वाली धनराशि का कुछ भाग डूब जाता है तथा उसके मिलने की आशा नहीं रहती तो उसे अशोध्य ऋण या डूबत ऋण कहा जाता है ।
लेनदार या ऋणदाता या ऋण ( Creditors or Loan ) – जिस व्यक्ति या संस्था से व्यापारी ने माल क्रय किया है अथवा रुपया उधार लिया है , उस व्यक्ति या संस्था को व्यापार का लेनदार या ऋणदाता कहते हैं । अथवा कोई व्यापारी अपने व्यापार के संचालन हेतु किसी व्यक्ति , संस्था या बैंक से जो धनराशि उधार लेता है । उसे ऋण कहा जाता है । ऐसी राशि का प्रयोग उत्पादक तथा अनुत्पादक दोनों प्रकार के कार्यों में किया जा सकता है ।
सम्पत्ति ( Assets ) – व्यापार को प्रारम्भ करने तथा उसको कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिए अनेक वस्तुओं एवं साधनों की आवश्यकता पड़ती है । ये साधन भूमि , मशीन , फर्नीचर , कार्यालय के उपकरण आदि हो सकते हैं । इन साधनों को सम्पत्ति के नाम से जाना जाता है ।
दायित्व ( Liabilities ) – व्यापार को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए व्यापरी को अन्य व्यापारियों तथा संस्थाओं से माल उधार क्रय करना पड़ता है या आवश्यकतानुसार ऋण लेना पड़ता है । इनका भुगतान उसे भविष्य में करना पड़ता जिसे देनदारियाँ या दायित्व कहते हैं , जैसे — लेनदार , बैंक ऋण , बैंक अधिविकर्ष , देय – विपत्र आदि । व्यापारी द्वारा व्यापार में लगायी गयी पूँजी भी व्यापार के लिए दायित्व मानी जाती है
आहरण ( Drawings ) – जब व्यापार का स्वामी व्यापार से कोई माल या नकद धन व्यक्तिगत प्रयोग के लिए निकालता है , तो उसे आहरण कहते हैं । आहरण की राशि को व्यापारी की पूँजी में से कम कर दिया जाता है । उदाहरण के लिए – एक व्यापारी की पूँजी ₹ 50,000 है । उसने एक माह में ₹ 1,000 नकद तथा ₹ 800 का माल व्यक्तिगत प्रयोग के लिए निकाला तो उस माह में उसका आहरण ₹ 1,800 हुआ तो उसकी पूँजी ( 50,000 – 1,800 ) = ₹ 48,200 रह जाएगी ।
कमीशन ( Commission ) – जब व्यापारी अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए मध्यस्थों अथवा अभिकर्ताओं की सेवाएँ प्राप्त करता है तो वह उनकी सेवाओं के बदले कुछ पारिश्रमिक देता है । अभिकर्त्ताओं को दिये जाने वाले इस पारिश्रमिक को कमीशन कहते हैं । कमीशन को वर्तन भी कहा जाता है
बैंक अधिविकर्ष ( Bank Overdraft ) – बैंक में व्यापारियों के लिए एक विशेष खाता खोला जाता है जिसे चालू खाता ( Current Account ) कहते हैं । इस खाते में बैंक यह सुविधा देता है कि व्यापारी उस खाते में आवश्यकता पड़ने पर जमा धनराशि से अधिक धनराशि भी निकाल सकता है । बैंक में जमा राशि से अतिरिक्त निकाली गयी इस राशि को बैंक अधिविकर्ष कहते हैं । यह व्यापार का दायित्व होता है ।
दिवालिया ( Insolvent ) – जब व्यापारी को व्यापार में निरन्तर हानि होती रहती है तथा उसकी सम्पत्ति उसके दायित्वों से कम हो जाती है तो ऐसी स्थिति में वह अपने कर्जों अथवा लेनदारों का रुपया चुकाने में असमर्थ हो जाता है । ऐसे वित्तीय संकट में वह न्यायालय की शरण लेता है । न्यायालय उसकी समस्त सम्पत्ति अपने अधिकार में ले लेता है तथा उसे बेचकर अथवा नीलाम करके रोकड़ में परिवर्तित कर लेता है । इस रोकड़ से वह समस्त लेनदारों का आंशिक भुगतान कर देता है एवं व्यापारी को ‘ दिवालिया ‘ घोषित कर देता है और इसका एक प्रमाण – पत्र व्यापारी को दिया जाता है । इसके पश्चात् व्यापारी किसी भी देनदारी का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं होता ।
खाता ( Account ) – जब किसी विशेष व्यक्ति , संस्था , वस्तु तथा आय – व्यय से सम्बन्धित समस्त सौदों का लेखा छाँटकर बहीखाते में एक स्थान पर लिख लिया जाता है तो वह उस व्यक्ति , संस्था , वस्तु , आय अथवा व्यय का खाता कहलाता है प्रत्येक खाते के दो पक्ष होते हैं — एक बायाँ पक्ष , जिसे ऋणी ( Debit ) कहते हैं और दूसरा दायाँ पक्ष , जिसे धनी ( Credit ) कहते हैं । खाते निम्न तीन प्रकार के होते हैं
( i ) व्यक्तिगत खाते , ( ii ) वास्तविक खाते तथा ( iii ) अवास्तविक या नाममात्र के खाते ।